किसी जन्नत से कम नही आदिवासियों के ये गांव

चंद पलों के लिए अपनी आंखें बंद कीजिए और सोचिए, आप ऐसे शहर, मोहल्ले या गांव में हैं जहां की दीवारें किसी जंगल का अनुभव करा रही हों. ये बातें सोचने भर से दिल में सुकून का संचार होने लगता है.
अगर आप सच में इस अनुभूति को जीना चाहते हैं तो कभी झारखंड के उन इलाकों में जाइए जहांं के घरों पर कलाकृतियां बनाई जाती हैं.

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वक्त के साथ विलुप्त होती जा रही झारखंड की सदियों पुरानी विरासत कला सोहराय बचाने का बीड़ा आदिवासी महिलाओं ने उठा लिया है. इन महिलाओं के प्रयास से झारखंड की कई ऐसी दीवारों पर निगाहें ठहर जाती हैं, जहां कभी ताकने का भी मन नहीं करता था.
युवाओं को सिखाने की कोशिश
झारखंड की जनजातियों के बीच लोकप्रिय 15 से भी ज्यादा पेंटिंग कलाओं से युवा वर्ग अनजान है. ये कला अब महज किताबों और इतिहास तक ही सिमट कर रह गई हैं.
उन्हीं में से एक है सोहराय पेंटिंग. जल, जंगल और जीवन को दर्शाने वाली यह पेंटिंग सबसे अलग और तालमेल बिठाने वाली है. आदिवासी महिलाएं इसे युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने की कोशिश में जुटी हैं.
दिवाली पर खूब चर्चा में रही थी सोहराय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फरवरी 2015 में हजारीबाग रेलवे स्टेशन के उद्घाटन के समय दीवारों पर सोहराय पेंटिंग को देखा था.
इसकी खूबसूरती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने जनवरी 2016 में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में सोहराय पेंटिंग का जिक्र किया. यानी लगभग एक वर्ष बाद भी उनके जेहन में उक्त कला की स्मृतियां जीवंत थी.
पीएम के जिक्र के बाद इस बार दिवाली पर आदिवासी गांवों की दीवारों पर सोहराय पेंटिंग उकेरे जाने की बात सुर्खियों में रही थी.
सोहराय कला को रोजगार से जोड़ने की कोशिशsoraya-paintings1
सोहराय को लोकप्रिय बनाने के लिए स्तभं नामक संस्था कोशिश में जुटी है. संस्था की जय श्री बताती हैंं कि उनकी टीम सोहराय पेंटिंग के जरिए गांव की महिलाओं और युवतियों को रोजगार से जोड़ने की कोशिश कर रही है.
जय श्री ने बताया कि वे सिसई लोहरदगा, लातेहार पलामू, गुमला जैसी बिहड़ जगहों पर जाकर महिलाओं को अपने साथ जोड़ रही हैंं और सोहराय कला सिखा रही हैं.
लगभग 100 से ज्यादा परिवारों की महिलाएं इसमें सहयोग कर रही हैंं. इस संस्था की महिलाओं ने झारखंड की गंदी दीवारों को खूबसूरत बनाने का बीड़ा उठाया है
उन्होंने बताया कि गांवों में भी मिट्टी के घर धीरे-धीर खत्म होते जा रहे हैं, इसलिए उनकी संस्था इसे अब कंक्रीट की दीवारों पर ही उकेरती है.
सबसे अलग है सोहराय
संस्था की सदस्य आरती उरांव ने बताया कि ये सोहराय बाकी सभी कला से अलग है. इसे सभी प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता है. इन रंगों को मिट्टी से बनाया जाता है जो आदिवासी महिलाएं खुद अपने घरों में तैयार करती हैंं.
अफसोस की बात यह है कि झारखंड पर्यटन स्थल होकर भी यहां कोई ऑर्ट म्यूजियम नहीं है. इस कारण सैलानी यहां की कई कलाओं से अनजान रह जाते हैं.
हड़प्पा काल से चली आ रही है सोहराय
सोहराय पेंटिंग की कला को हड़प्पा संस्कृति के समकालीन माना गया है. झारखंड की जनजातीय कला के रूप में पहचाने जानी वाली इस कला का लोग ‘वंश वृद्धि’ और ‘फसल वृद्धि्’ के रूप में चित्रण करते हैं.
संथाल, मुंडा, गोंड, कोरमा, असुर तथा बैगा जनजातियों के बीच यह कला सबसे ज्यादा लोकप्रिय है.

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