आज लखनऊ के ज्यादातर इमामबाड़े अपनी खूबसूरती खो चुके हैं लेकिन हुसैनाबाद इमामबाड़ा आज भी वैसे ही सजा-संवरा है। इसे अवध के तीसरे बादशाह मुहम्मद अली शाह ने बनवाया था।
इसके साथ हुसैनाबाद में जिलौखाना, शाही हमाम, हौज, शाही कुआं, रसद गाह, मीना बाजार, वेधशाला, सराय, सतखंडा, रईस मंजिल जैसी कई दूसरी इमारतें भी बनीं।
इन कुल इमारतों का झुंड जिसे आज हुसैनाबाद कहा जाता है, किसी जमाने में हिंदुस्तान का बेबीलोन समझा जाता था।
हुसैनाबाद में पीतल के जगमगाते तमाम गुंबदों और लहलहाते हुए कंगूरों को देखकर रूस के एक सैलानी शहजादे ने इसे क्रेमलिन ऑफ इंडिया का नाम दिया था।
इमामबाड़े का सदर दरवाजा एक त्रिपोलिए की सूरत बना हुआ है, जिसमें लखनवी इमारत होने का पूरा-पूरा अहसास है।
इमामबाड़े के भीतर नवाब मुहम्मद अली शाह तथा उनकी मांग की कब्र है। उन दोनों मजारों को चांदी के कटघरे से घेर दिया गया है।
छोटे इमामबाड़े का सबसे बड़ा आकर्षण है, इस भवन में सजे हुए बेल्जियम कांच की कीमती झाड़ फानूस, कंदीलें, दीवारगीरियां और शमादान। इमामबाड़े पर कमरखीदार सुनहरा गुम्बद है, जिसके बुर्जों की खूबसूरती देखते बनती है।
इसके शिखर पर अर्द्धचंद्र की गोद में उगता सूरज है, जो लखनऊ का प्राचीन चिन्ह माना जाता है। इस इमामबाड़े में भी एक मकबरा है, जो अवध के तीसरे बादशाह की लाडली बेटी जनाब असिया का है।
शाहजादी के मकबरे की भीतरी मेहराबों पर ताजमहल की याद ताजा करने वाली डिजाइनों में कुरान की आयतें लिखीं हैं।
मुहम्मद अली शाह 8 जुलाई 1837 को बादशाह बने। उन्होंने केवल पांच साल तक अवध में शासन किया और इस दौरान ही उन्होंने हुसैनाबाद की खूबसूरत और लाजवाब इमारतों को बनवाया।
16 मई 1842 में उनका इंतकाल हो गया। मरने के बाद बादशाह को इमामबाड़ा हुसैनाबाद में उनकी मां मलका आलिया के पास सुला दिया गया।