क्या सिर्फ चंद मिनटों का आनंद लेकर कोई पिता बन सकता है या नहीं…

यदि नौ महीने असहनीय पीड़ा झेलकर बच्चे को जन्म देने वाली मां से कह सकते हैं कि ‘जन्म देने से कोई मां नहीं हो जाता’ तो बच्चे के जन्म के लिए नौ मिनट सिर्फ आनंद लेने वाला पुरुष भी उसका पिता कैसे हो सकता है?

भारतीय समाज में मातृत्व की अवधारणा जिस तरह से नस-नस में फैली है, पितृत्व की अवधारणा उतनी ही ज्यादा गायब है. बल्कि ‘मातृत्व‘ के बरक्स ‘पितृत्व‘ जैसा कोई शब्द तक सुनने में नहीं आता. मातृत्व जितना, जहां-जहां, जैसे-जैसे है, पितृत्व उतना, वहां-वहां, वैसे-वैसे अनुपस्थित है. मानो पितृत्व लेबर रूम हो गया जहां पुरूषों की उपस्थिति सख्त मना है! तो ऐसा है पिताओ! कि अभी तक हमने मातृत्व का बखान ‘पितृसत्ता‘ से सुना है और अब आप पितृत्व का बखान मातृसत्ता से सुनिए!
भारतवर्ष के महान पिताओं की परंपरा के अधिकांश पितरगण! आप जिस ‘वीर्यदान‘ को पितृत्व निभाना मानते आ रहे हैं असल में वह सिर्फ गर्भाधान का साधन भर होना है. इसे यूं समझ लीजिए कि जैसे गायों का गर्भाधान कोई सांड करता है! सांड के मन में बाप बनने की खुशी जैसी कोई भावना नहीं होती, पर चूंकि आप इंसान हैं और सामाजिक प्राणी हैं, तो आप गर्भाधान मात्र को बाप बनने से जोड़कर देखने लगते हैं और अपने वंश की बेल बढ़ने के जश्न में आकंठ डूब जाते हैं.

एक तरफ स्त्री बच्चे को पैदा करने को ध्यान में रखकर ही अपने नौ महीने देती है, तमाम तरह की चुनौतियां, दर्द, अस्वस्थता झेलते हुए. दूसरी तरफ पुरुष को बच्चे को ध्यान में रखकर कोई सायास प्रयास करने ही नहीं होते हैं.

पर हे पिता! मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा कि आप पितृत्व के असली हक और सुख से कोसों दूर हैं! यह कहने का साहस कर पाने के लिए मैं आपकी ही सत्ता द्वारा अतिप्रचलित एक सूक्ति दोहरा रही हूं. हमें बच्चे की अंतहीन, क्रोधहीन और समर्पण से भरी सेवा के संदर्भ में अक्सर कहा जाता है कि ‘बच्चे को जन्म देने भर से कोई स्त्री मां नहीं बन जाती!’ मतलब कि यदि किसी स्त्री ने यदि सिर्फ बच्चे को जन्म भर दिया है और पालन-पोषण की अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभाई, तो वह मां कहलाने की असली हकदार नहीं. जबकि बच्चे को सिर्फ जन्म देने भर के लिए स्त्री नौ महीने उसे अपने पेट में पालती है. जन्म के समय मृत्यु के साक्षात दर्शन करके, दर्द के अवर्णनीय यातनाशिविर से गुजरती है.
इसके बाद भी जरा सी ऊंच-नीच होने पर समाज बड़े आसानी से कह देता है कि जन्म देना भर मां बनना नहीं है. लेकिन पिता को तो नौ मिनट भी गर्भाधान में नहीं लगते और दर्द की जगह सिर्फ आनंद आता है. यदि नौ महीने का समय देने वाली और बच्चे के जन्म के वक्त असहनीय पीड़ा झेलने वाली स्त्री मां कहलाने की हकदार नहीं, तो बच्चे के जन्म के लिए नौ मिनट सिर्फ आनंद का अनुभव करने वाला पुरुष पिता कहलाने का हकदार क्यों और कैसे है?
एक तरफ स्त्री बच्चे को पैदा करने को ध्यान में रखकर ही अपने नौ महीने देती है, तमाम तरह की चुनौतियां, दर्द, अस्वस्थता झेलते हुए. दूसरी तरफ पुरुष को बच्चे को ध्यान में रखकर कोई सायास प्रयास करने ही नहीं होते हैं.

जिस समय नई-नई बनी मां बच्चे को पालने के गुर सीख रही होती है, उस समय जैविक पिता यह कहकर बच्चे का कोई भी नया काम करने, सीखने से खुद को बचा रहे होते हैं कि यह तो उन्हें आता ही नहीं! या फिर ये तो औरतों का काम है.

तो अब आप ही देख लीजिए कि अपने बनाए पैमाने पर ही आप एक बूंद भर नहीं टिक पा रहे. बताइये कि अब कैसे आपको सिर्फ वीर्यदान के नाम पर बाप बनने का तमगा पहना दिया जाए? भारत के अधिकांश पिता अपने बच्चे के सिर्फ जैविक पिता ही हैं. हमारे समाज में जैविक पिताओं की संख्या बड़ी है सामाजिक पिता अल्पसंख्यक हैं.
अब आप कहेंगे कि आप बाप होने के नाते बच्चे के पालन-पोषण के लिए पैसा और संसाधन जुटाते हैं. जब भी आप किसी नई नौकरी, नए रिश्ते, नए घर, नई जगह, नए परिवेश में जाते हैं या कुछ भी नया काम करते हैं तो आप बहुत सारी नई चीजें करते हैं, नएपन से तालमेल बैठाने के लिए. लेकिन नए-नए पिता बने अधिकांश पुरुष ऐसा कौन सा नया काम करते हैं जो कि वे पहली बार कर रहे हों, सिर्फ बच्चे के कारण?
सच तो यह है कि सरकार द्वारा दिया जाने वाला पितृत्व अवकाश पिताओं के लिए ज्यादा आराम और बहुत मामूली से घरेलू काम करने के लिए होता है. जिस समय नई-नई मां बनी स्त्री बच्चे को पालने के गुर सीख रही होती है, ठीक उसी समय जैविक पिता यह कहकर बच्चे का कोई भी नया काम करने, सीखने से खुद को बचा रहे होते हैं कि यह तो उन्हें आता ही नहीं! या फिर ये तो औरतों का काम है. कुछ पिता तो यह बेहूदा तर्क देने से भी बाज नहीं आते कि वे क्या बच्चे को दूध पिलाएंगे? जैसे बच्चे को स्तनपान कराने के अलावा उनका कोई ऐसा काम ही न हो, जिसे वे कर सकते हैं!

 

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