बलि प्रथा?- मंदिरों में नारियल फोड़ना बलि की तरह ही है…………………

मंदिरों में नारियल फोड़ना बलि की तरह ही है। नारिलय को बीज माना जाता है। जब मंदिरों में नारियल को फोड़ते हैं या नींबू को काटते हैं तो इनमें से ऊर्जा मुक्त हो जाती है। किसी पशु, मुर्गे या बकरे की बलि देने के पीछे भी यही उद्देश्य छिपा होता है।

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आध्यात्मिक गुरु सद्गुगुरु जग्गी वासुदेव कहते हैं, ‘बलि के लिए हमेशा इस तरह के जीवन को चुना जाता है, जो ताजा और पूरी तरह जीवंत हो। जब मानव-बलि दी जाती थी, तो हमेशा युवा लोगों को चुना जाता था। यही बात पशु बलि पर लागू होती है, कोई भी बूढ़े बकरे की बलि नहीं देता। जवान और जीवंत बकरे को चुना जाता है।’

लेकिन लोग सिर्फ गर्दन और नारियल तोड़ते हैं। उसका लाभ कैसे उठाना है, यह उन्हें मालूम नहीं है, वह तकनीक काफी हद तक नष्ट हो चुकी है। बहुत कम जगहों पर लोगों को इसकी जानकारी है। बाकी जगहों पर वे बस रस्म की तरह उसे करते हैं और सोचते हैं कि इससे देवी-देवता खुश होंगे। वैसे भी नारियल या मुर्गा या जिस भी चीज की आप बलि देने वाले हैं, आपको ही खाना है। कोई देवी-देवता उसे खाने नहीं आएंगे।

तांत्रिक जीवन-शैली में लोगों ने खुद की बलि भी दी है। ऐसे मंदिर भी रहे हैं, जहां पशु-बलि या मानव-बलि की जगह किसी और चीज का इस्तेमाल किया गया है। एक जीवन को मारने का मकसद क्या है? क्या इससे कोई भगवान खुश होगा? इसका भगवान से कोई लेना-देना नहीं है।

आप ऐसा सोच भी नहीं सकते, क्योंकि आप उसे पवित्र स्थान की तरह देखते हैं, लेकिन वे एक स्त्री के मासिक स्त्राव का इस्तेमाल करते थे, क्योंकि वह जीवन है। किसी शिशु को मारने की जगह वे बस उस स्राव का इस्तेमाल करते थे, क्योंकि वह जीवन बनाने वाली चीज है, उससे उन्होंने वो चीज बनाई, जिसे आप भगवान कहते हैं।

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