कुंभ के मेले में लोगों के मिलने और बिछड़ने की घटनाओं ने बॉलीवुड को बहुत-सी कहानियों से नवाजा है. इन कहानियों पर आधारित तमाम फिल्में जहां एक तरफ सुपरहिट हुईं वहीं दूसरी ओर कई सुपरस्टारों ने जन्म लिया. लेकिन हम आपको किसी फिल्मी कहानी या फिल्मी नायक के बारे में नहीं बताने जा रहे, बल्कि एक ऐसे नायक के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन कुंभ में बिछड़े हुए लोगों को उनके अपनों से मिलाने में न्योछावर कर दिया. इस अजीम इंसान का नाम राजाराम तिवारी है, जिन्होंने अगस्त महीने की 20 तारीख को इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
1946 में 18 साल की उम्र में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले से राजाराम अपने कुछ दोस्तों के साथ इलाहाबाद में माघ मेला देखने आए थे. मेले में उन्हें एक रोता हुआ बच्चा मिला. उसके परिजन उससे बिछड़ चुके थे. राजाराम ने उसके परिजन की खोज शुरू कर दी. दोस्तों के साथ मिलकर उन्होंने चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को बच्चे की जानकारी देनी शुरू कर दी. उस दौर में लाउडस्पीकर की कोई व्यवस्था नहीं होती थी, इसलिए उन्होंने टीन के डब्बे को काटकर भोंपू बनाया और उससे अनाउंस करने लगे. कुछ घंटों की मशक्कत के बाद उस बच्चे के माता-पिता मिल गए.
इस घटना ने राजाराम को जिंदगी का मकसद दे दिया और उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी कुंभ मेले में बिछड़ों को उनके अपनों से मिलाने में गुजार दी. यह घटना एक संगठन के निर्माण का भी सबब बनी जिसे आज भारत सेवा दल के नाम से जाना जाता है. उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर शालिक राम जायसवाल के नेतृत्व में इस दल का गठन किया था. दल की वेबसाइट के मुताबिक 1946 में राजाराम और उनके नौ दोस्तों ने 870 लोगों को मिलवाया था. दल के आंकड़ों के पर गौर करें तो यह अब तक तकरीबन 14 लाख लोगों को मिलवा चुका है. इतना ही नहीं, राजाराम के इस सेवा भाव की वजह से उनका असली नाम भी लोगों ने भुला दिया. अब लोग उन्हें राजाराम तिवारी नहीं बल्कि ‘भूले-भटके’ तिवारी के नाम से ही जानते हैं.